उत्तराखंड के सभी जिलों की जानकारी -1.हरिद्वार


हरिद्वार गढ़वाल क्षेत्र का अति विशिष्ट नगर है, जो कि शिवालिक
श्रेणी के बिल्व व नील पर्वतों के मध्य गंगा के दाहिने तट पर स्थित
है। यही से गंगा मैदान में उतरती हैं। जिले के रूप में इसका गठन 28
दिसम्बर 1988 को किया गया। 1988 से लेकर राज्य के गठन तक
यह सहारनपुर मण्डल में था, लेकिन गठन के बाद इसे गढ़वाल
मण्डल का एक जिला बना दिया गया है।
पुराणों तथा संस्कृत साहित्य में इसे गंगाद्वार, देवताओं का
द्वार, तीर्थस्थलों का प्रवेश द्वार, चारों धामों का द्वार, स्वर्ग द्वार,
मायापुरी या मायाक्षेत्र आदि नामों अभिहित किया गया है।
• शिव के उपासक जो केदारनाथ की यात्रा पर जाते हैं, इसे
शिव से जोड़ते हुए 'हरद्वार' तथा वैष्णव मत वाले यात्री जो बदरीनाथ की यात्रा करते हैं, इसे 'हरिद्वार' कहते हैं।

• रामायण काल से पूर्व यहाँ कपिल मुनि का आश्रम था। हनि
जिसमें सूर्यवंशी राजा सगर के अश्वमेध यज्ञ घोड़े को इन्द्र ने चुपके औ
से बांध दिया था। घोड़े को खोजते हुए 60 हजार सगर पुत्र आश्रम में स्थ
पहुँचकर कपिल मुनि को अपशब्द कहे और मुनि के शाप से भस्म हो लि
गये। कालान्तर में सगर के वंशज भगीरथ ने तपस्या करके पृथ्वी पर
गंगा का अवतरण कराया और इधर से गंगा को गुजारकर अपने टां
पूर्वजों का उद्धार कराया। कपिल मुनि के नाम पर हरिद्वार को कपिला राज
भी कहा गया है।
• प्राचीन इतिहासकारों के अनुसार इस क्षेत्र का वन 'खांडववन'
के नाम से प्रसिद्ध था, जिसमें पांडव अपने अज्ञातवास के दौरान सं.
छिपकर रहे।
धृतराष्ट्र, गांधारी तथा विदुर ने अपना शरीर यहीं त्यागा था
और विदुर ने मैत्रेय ऋषि को महाभारत कथा यहीं सुनाया था।
•सप्त ऋषियों द्वारा इस स्थान पर तप करने के कारण यहां
गंगा को सात धाराओं में होकर बहना पड़ा था।
• इतिहासकारों ने इसे गेरुए मृदभाण्ड संस्कृति वाला नगर
माना है, जिसका काल ईसा पूर्व 1200 से 1700 वर्ष के मध्य
ठहरता है।
• जैन ग्रंथों के अनुसार 1000 वर्ष पूर्व प्रथम जैन तीर्थंकर त
भगवान आदि नाथ ने मायापुरी (हरिद्वार) क्षेत्र में रहकर तपस्या की थी। बो
• आज से लगभग 2056 वर्ष पूर्व उज्जैन के राजा विक्रमादित्य  के 
बड़े भाई राजा भर्तृहरि ने हरिद्वार के शिवालिक श्रेणी पर तपस्या
की और दो महान ग्रंथों (नीतिशतक व वैराग्य शतक) की रचना की
थी।
• राजा विक्रमादित्य ने भाई की याद में यहाँ गंगा पर पौड़ियों
(सीढ़ियों) का निर्माण कराया था, जिसे भतृहरि की पैड़ी कहाँ
जाता था। कालान्तर में यही हर की पैड़ी हो गया। विक्रमादित्य ने
यहाँ एक भवन भी बनवाया था, जो भग्नावशेषों के रूप में डाटवाली
हवेली के नाम से आज भी हर की पैड़ी के पास स्थित है।

• चीनी यात्री हेनसांग सन् 634 में हरिद्वार आया था। उसने
इस नगर को "मो-यू-लो" तथा गंगा को महाभद्रा कहा। कनिंघम
मो-यू-लो का अर्थ मयूरपुर से लगाते हैं।
1399 में तैमूरलंग भी यहाँ आया था। उसका इतिहासकार
सरुददीन न हरिद्वार को "कायोपिल' या 'कुपिला' कहा है, जो
कनियम के अनुसार यह कोह-परी है। कोह का अर्थ पहाड़ होता है।
सरुद्दीन ने यहाँ गंगा के किनारे विष्णु के बताए जाने वाले चरण
चिह भी देखे थे।
• अकबर काल के इतिहासकार अबुलफजल 'आइने अकबरी'
में लिखता है कि पाया ही हरिद्वार के नाम से जानी जाती रही है।
वह यह भी लिखता है कि अकबर के रसोईघर में गंगाजल ही
प्रयुक्त होता था। यह जल हरिद्वार से अकबर बड़े-बड़े घड़ों में
• अकबर सेनापति मानसिंह ने हरिद्वार में हरकी पैड़ी का जीर्णोद्धार कराया था और प्राचीन नगर के खण्डहरों पर आधुनिक हरिद्वार की नींव भी रखी थी। उसने पुराने संकरे घाट को बनवाया5 और गंगा की धारा के मध्य एक अष्ठ कोणी स्तम्भ बनवाकर साधनास्थल के रूप में प्रयोग करने के लिए किसी साधू को ताम्रपत्रलिखकर दान दे दिया था। यह स्तम्भ आज भी विद्यमान है।1608 में जहांगीर के शासनकाल में पहला यूरोपियनयात्री टॉम कारयट हरिद्वार आया था। उसने हरिद्वार को शिव कीराजधानी कहाँ। स्वयं जहांगीर 1620 कुछ दिनों के लिए हरिद्वार आकर रहा था।

• रामानन्द (1400-1470) के आगमन के पश्चात् रामावत

संप्रदाय और वैष्णव लहर ने हरिद्वार को हिन्दुओं के प्रमुखतीर्थ के
रूप में प्रतिष्ठा दिलाई।
• गोरखों के शासनकाल में हरिद्वार दासों का बिक्री केन्द्र
बन गया गया था।
• अलेक्जेण्डर कनिंघम, जो कि ब्रिटिश सरकार द्वारा संचालित
आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ इण्डियाके डायरेक्टर जनरल थे, ने
सन् 1862 से 1865 के बीच यहाँ का पुरातात्विक सर्वेक्षण किया था।
उनकी रपट के अनुसार हरिद्वार में गंगाद्वार, हरकी पैडी, मायादेवी
मंदिर, भैरव मन्दिर, नारायणबली मन्दिर और राजावेन का किला
तब के प्रमुख स्थल थे। कनिंघम को यहाँ के श्रवणनाथ मंदिर में
बोधिवृक्ष के नीचे समाधि स्थल से बुद्ध की प्रतिमा मिली थी।
विशेष ध्यान दिया।
• अंग्रेजों ने हरिद्वार महत्व को देखते हुए इसके विकास पर
.महात्मा गांधी ने 1915 और 1927 में हरिद्वार की यात्रा की

यहाँ के प्रमुख धार्मिक एवं दर्शनीय स्थल हैं - हर की

पौड़ी, ब्रह्मकुंड, कांगड़ा मंदिर, सुभाषघाट, कुशावर्तघाट, गऊ घाट,

श्रावणनाथ मंदिर, दक्षेश्वर मंदिर, गोरखनाथ मंदिर, चंडीदेवी मंदिर,

प्राचीन गंगा नील धारा, महामाया देवी मंदिर, श्री मनसा देवी

मंदिर, भीमगोडा कुंड, जयराम आश्रम, भारत माता मंदिर, सप्तऋषि

आश्रम, विष्णुचरण पादुका मंदिर, श्रीगंगा मंदिर (मानसिंह निर्मित),

अठखंबा मंदिर, गंगाधर महादेव मंदिर या गंगा-भागीरथ मंदिर,

गायत्री मंदिर (शांतिकुंज), नीलेश्वर महादेव, श्री लक्ष्मी नारायण

मंदिर आदि। यहाँ कांची कामकोटि पीठ के जगद्गुरू शंकराचार्य जयेन्द्र

सरस्वती द्वारा स्थापित दक्षिण शैली का 'मकरवाहिनी गंगा' का एक

भव्य मंदिर है। इस मंदिर में काले पत्थर की गंगा की प्रतिमा है।

• पौराणिक ग्रंथों में यहाँ के जिन पांच तीर्थों को महत्वपूर्ण

वे हैं - हर के पैडी, कुशावर्त, नील पर्वत,

कनखल व बिल्व पर्वत।

हरकी पैड़ी (ब्रह्मकण्ड)

सर्वप्रथम यहाँ का पवित्र घाट

राजा विक्रमादित्य ने अपने भाई भर्तृहरि की स्मृति में बनवाया था।

अकबर के सेनापति राजा मानसिंह ने हरकी पैड़ी का नये सिरे से

निर्माण किया था। यह पवित्र स्नान घाट ब्रह्मकुण्ड के रूप में भी

जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि यहाँ स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

गऊघाट ब्रह्मकुुंड केे दक्षिण स्थित इस घाट पर स्न्नान 

 करने से मनुष्य गौ हत्या के पाप से मुक्त हो जाता है।

● कुशावर्त घाट यहाँ पर एक पर  घदत्तात्रेय ऋषि ने तपस्या की थी। गंगा के प्रवाह में उनके कुुुुश आदि बह गए।उनके 

कुपित होने पर गंगा ने उन्हें वापस किया और इस स्थान का नाम कुशावर्त घाट पड़ा। इसघाट का निर्माण महारानी अहिल्याबाई ने कराया था वहाँ 

पिण्डदान किया जाता है।

मायादेवी मन्दिर - यह मंदिर देवी के 51 शक्तिपीठों में से

एक है। यह मंदिर हरिद्वार रेलवे स्टेशन मात्र 2 किमी. दूरी पर

नगर के बीच में स्थित है। मायादेवी हरिद्वार की अधिष्ठात्री देवी हैं।

मायादेवी का मन्दिर मायापुर अर्थात् हरिद्वार का प्राचीनतम पदिर ।

मंसादेवी मन्दिर हरिद्वार में शिवालिक पर्वत श्रृंखला के

बिल्व शिखर जो कि नगर के पश्चिम में स्थित है, पर यह मन्दिर

स्थित है। ब्रह्मा के मन से उत्पत्र तथा जत्कार ऋषि की पत्नी सर्पराजी

देवी (मा मंसा) की हाँ तीन मुख और पांच भुजाओं वाली अष्टनाग

बाहिनी मूर्ति स्थापित है। यहाँ रोप-वे व पैदल मार्ग से जाया जा

है।

निम

चण्डीदेवी मन्दिर (पौढ़ी में) जहां मंसादेवी हों वहीं

चण्डीदेवी का होना अनिवार्य होता है। हरिद्वार के पूर्वी छोर पर

शिवालिक के नील शिखर पर चण्डीदेवी का मन्दिर स्थित है। यहाँ

भी रोप-वे व पैदल मार्ग से जाया जा सकता है।


●बिल्वकेश्वर महादेव मन्दिर - शिव के प्रमुख स्थानों में से

एक बिल्बकेश्वर महादेव का मन्दिर बिल्व पर्वत की तलहटी में स्थित

कहा जाता है कि पार्वती ने यही पर शिव की प्राप्ति के लिए घोर

तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन होकर भगवान शिव ने यहीं

पर उन्हें दर्शन दिया था।

भीमगोड़ा - भीमगोडा कुंड पाण्डव काल का बताया जाता हैै ।यह  कुंड भीम के घोड़े की टाप से बना हुआ है।


सप्तऋषि आश्रम-
कहा जाता है कि जब गंगा जी पृथ्वी पर
उतरीं तो हरिद्वार के निकट सप्तऋषियों के आश्रम को देखकर रुक गईं
और यह निर्णय नहीं कर पाईं कि किस ऋषि के आश्रम के सामने से
साहित हों, क्योंकि प्रश्न सभी ऋषियों के सम्मान का था एवं उनके
कोपभाजन बनने का भी भय था। तब गंगा को देवताओं ने सात
धाराओं में विभक्त होने को कहा, और गंगा सात धाराओं में विभक्त
होकर बहीं। अतः यह क्षेत्र सप्तसरोवर और सप्तऋषि नाम से
विख्यात हुआ। आज यहां सप्तऋषि आश्रम स्थापित है।


शान्ति कुंज - आचार्य प्रवर पं. श्रीराम शर्मा के संरक्षण में
शान्तिकुंज संस्थान की स्थापना 1971 में हुई। इस संस्थान में नित्य प
गायत्री यज्ञ व साधना होती है। आज यह स्थान गायत्री तीर्थ के रूप
में प्रतिष्ठित है।

कनखल यह हरिद्वार केे दक्षिण में स्थित एक उपनगर है।पौराणीक काल में यह नगर शिवजी के ससुर दक्ष प्रजापति की

राजधानी थी। इसी नगर में दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में शिव का कोई
स्थान न देख उनकी पत्नी सती ने वर्तमान सती कुण्ड नामक स्थान
पर योगाग्नि से अपने शरीर को जला दिया था।
सनत्कुमारों को यहीं पर सिद्धि मिली थी।
कालिदास के मेघदूतम में इस नगर का वर्णन है।
दक्षेश्वर महादेव
तिलाभडेश्वर महादेव, नाराणी शिला,
महाविद्या मंदिर, श्मशान मंदिर, रामेश्वर महादेव, महिषासुर मर्दिनी,
आदि यहाँ के प्रमुख मंदिर हैं।
रुड़की – हरिद्वार का यह उप नगर गंग नहर के दोनों ओर
तथा सोनाली नदी के दक्षिण ओर स्थित है। इस नगर का विकास तब
होना आरम्भ हुआ जब ऊपरी गंगा नहर का निर्माण कार्य शुरु हुआ।
इस नहर की परिकल्पन तत्कालीन गवर्नर थामसन ने की थी तथा
इसका निर्माण कर्नल पी. बी. काटले के नेतृत्व में किया गया। इसके
निर्माण में 1847 में रुड़की में स्थापित एशिया के प्रथम इंजीनियरिंग
कॉलेज, थामसन- कॉलेज ऑफ सिविल इंजीनिरिंग) का महत्वपूर्ण
तकनीकी सहयोग रहा। यह कालेज आज आईआईटी दर्जा प्राप्त है।
• इसी संस्थान के तकनीकी नेतृत्व में भारत में पहली बार 22
दिसम्बर, 1851 को रुड़की से पिरान कलियर के बीच रेल इंजन
दो मालवाहक डिब्बों के साथ रवाना हुआ। इन डिब्बों में मिट्टी
भरी होती थी जिसे गंगानहर निर्माण के उपयोग में लाया जाता था।
1847 में स्थापित एशिया के प्रथम इंजीनियरिंग कॉलेज के
पश्चात् रुड़की में रक्षा एवं तकनीकी कौशल का प्रमुख कार्यालय,
बंगाल इंजीनियर ग्रुप एवं केन्द्रीय भवन अनुसंधान संस्थान,
राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान, भारतीय सिंचाई अनुसंधान संस्थान
जैसे कई महत्वपूर्ण संस्थानों की स्थापना होती गई।
यहाँ हज़रत अलाउद्दीन अहमद 'साबिर' की दरगाह (पिराने
कलियर) है, जो कि हिन्दू और मुस्लिम धर्मों के बीच एकता का एक जीवन्त मिसाल है।


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